देवभूमि उत्तराखंड अपनी मनमोहक प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ अपनी अद्भुत सांस्कृतिक विरासत और लोकपरंपराओं के लिए भी प्रसिद्ध है। यहाँ के तीज-त्योहार केवल धार्मिक आयोजन नहीं होते, बल्कि मानव और प्रकृति के गहरे रिश्ते का उत्सव भी होते हैं। इन्हीं में से एक विशेष पर्व है सातों-आठों (Saatu-Aathu), जो मुख्य रूप से कुमाऊं अंचल में बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है।
यह पर्व एक माँ के अपनी संतान के प्रति अटूट प्रेम, उनकी लंबी आयु और सुख-समृद्धि की कामना का प्रतीक है। आइए जानते हैं इसके महत्व और रस्मों के बारे में विस्तार से।
सातों-आठों क्या है ?
'सातों-आठों' का शाब्दिक अर्थ है – सातवां और आठवां दिन। यह पर्व भाद्रपद (भादो) मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं अपनी संतान की सलामती और सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं और देवी पार्वती (गौरी) तथा भगवान शिव (महेश्वर) की पूजा करती हैं।
त्योहार की तैयारी और प्रमुख रस्में
1. बिरुड़े भिगोना (पंचमी)
इस पर्व की शुरुआत पंचमी तिथि से होती है। इस दिन महिलाएं तांबे के बर्तन में पांच या सात प्रकार के अनाज (चना, गेहूं, मक्का, गहत, मटर, उड़द और भट्ट) भिगोती हैं। इन्हें “बिरुड़े” कहा जाता है।
2. सातों (सप्तमी)
सप्तमी का दिन उपवास और विशेष पूजा का होता है।
गौरी-महेश्वर की मूर्ति बनाना – महिलाएं मिट्टी या चावल के आटे (बिस्वार) से गौरी-महेश्वर की मूर्तियाँ बनाती हैं और उन्हें सजाती हैं।
दूब धागा (डोरा) तैयार करना – पीले धागे में दूब घास की गांठ लगाकर पवित्र डोरा बनाया जाता है। यह बच्चों के लिए रक्षा-सूत्र होता है।
पूजा और गीत – शाम को पूजा में बिरुड़े, फल-फूल और पकवान अर्पित किए जाते हैं। महिलाएं पारंपरिक लोकगीत और भजन गाकर माहौल को भक्तिमय बना देती हैं।
3. आठों (अष्टमी)
अष्टमी पर्व का मुख्य दिन है।
बिरुड़े पकाना – सुबह स्नान के बाद भिगोए हुए बिरुड़ों को उबालकर हल्दी-नमक के साथ पकाया जाता है।
कथा सुनना – सातों-आठों की कथा सुनाई जाती है, जिसमें माँ पार्वती के त्याग और वात्सल्य का वर्णन होता है।
डोरा बांधना – पूजा के बाद महिलाएं अपनी संतानों की कलाई या गले में दूब धागा बांधती हैं। यह बच्चों को बुरी नजर से बचाने और उनकी दीर्घायु का प्रतीक है।
व्रत का पारण – अंत में बिरुड़े प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं और महिलाएं व्रत खोलती हैं।
सातों-आठों का महत्व
1. मातृ-प्रेम का प्रतीक – माँ के निस्वार्थ प्रेम और संतान के लिए समर्पण का पर्व।
2. प्रकृति से जुड़ाव – बिरुड़े हमें खेती, अनाज और प्रकृति के महत्व की याद दिलाते हैं।
3. सामुदायिक एकता – प्रसाद बांटना और मिलकर गीत गाना सामाजिक रिश्तों को मजबूत करता है।
4. परंपरा का संरक्षण – यह पर्व लोकगीतों, कथाओं और रीति-रिवाजों के ज़रिये संस्कृति को जीवित रखता है।
सातों-आठों उत्तराखंड की संस्कृति का एक जीवंत प्रतीक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जीवन का सबसे बड़ा धन संतान का स्वास्थ्य और परिवार का साथ है। भले ही आधुनिक समय में जीवनशैली बदल गई हो, लेकिन आज भी उत्तराखंड के गांवों में यह त्योहार उसी श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है, जैसा सदियों से होता आया है।
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