खटीमा गोलीकांड: उत्तराखंड के इतिहास का वो काला दिन जिसने अलग राज्य की नींव रखी



1 सितंबर 1994, यह तारीख उत्तराखंड के इतिहास में सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि एक ऐसे गहरे ज़ख्म का प्रतीक है जिसने अलग राज्य के आंदोलन की आग को ज्वाला में बदल दिया। यह उस बर्बर गोलीकांड का दिन है जब अपने हक के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलियां बरसा दी थीं। आज हम उसी खटीमा गोलीकांड की पूरी कहानी, उसके कारण और उसके नतीजों को विस्तार से जानेंगे।


आंदोलन की पृष्ठभूमि: क्यों सुलग रही थी अलग राज्य की आग?

उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश का हिस्सा) के पहाड़ी क्षेत्रों में दशकों से एक अलग राज्य की मांग पनप रही थी। इसके मुख्य कारण थे ।

विकास की उपेक्षा : लखनऊ से चलने वाली सरकार का ध्यान पहाड़ी क्षेत्रों की विशिष्ट भौगोलिक और सामाजिक जरूरतों पर नहीं था, जिससे यह क्षेत्र विकास की दौड़ में पिछड़ रहा था।

सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान : पहाड़ की संस्कृति, भाषा और रहन-सहन मैदानी इलाकों से बिल्कुल अलग था। लोग अपनी इस विशिष्ट पहचान को संरक्षित रखना चाहते थे।

रोजगार और शिक्षा का अभाव : बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसरों की कमी के कारण पहाड़ों से पलायन एक बड़ी समस्या बन चुका था।


1 सितंबर 1994: खटीमा में क्या हुआ था ?

1 सितंबर 1994 को अलग राज्य की मांग के समर्थन में खटीमा में हजारों लोगों ने एक विशाल जुलूस का आयोजन किया। इस जुलूस में पूर्व सैनिक, छात्र, महिलाएं और आम नागरिक शांतिपूर्ण तरीके से अपनी आवाज बुलंद करते हुए तहसील की ओर बढ़ रहे थे। प्रदर्शनकारियों का इरादा पूरी तरह से अहिंसक था।


लेकिन प्रशासन ने इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर ऐसी क्रूरता दिखाई जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। पुलिस ने जुलूस को रोकने की कोशिश की और जब प्रदर्शनकारी नहीं रुके तो उन पर बिना किसी चेतावनी के अंधाधुंध फायरिंग कर दी गई। इस अचानक हुई गोलीबारी से भगदड़ मच गई। सरकारी गोलियों ने सात आंदोलनकारियों की जान ले ली और सैकड़ों लोग घायल हो गए। इस दिन खटीमा की सड़कों पर निर्दोष लोगों का खून बहा, जिसने पूरे पहाड़ के स्वाभिमान को झकझोर कर रख दिया।

खटीमा गोलीकांड के अमर शहीद 

इस गोलीकांड में सात वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। उत्तराखंड इन अमर शहीदों के बलिदान को कभी नहीं भूल सकता।

1 स्व. श्री सलीम पुत्र श्री अब्दुल रशीद (निवासी- इस्लाम नगर, खटीमा)
2 स्व. श्री भगवान सिंह सिरौला पुत्र श्री इंद्र सिंह (निवासी- श्रीपुर बिचवा, तहसील खटीमा)
3 स्व. श्री प्रताप सिंह पुत्र श्री प्रेम सिंह (निवासी- झनकइया, तहसील खटीमा)
4 स्व. श्री धर्मानन्द भट्ट पुत्र श्री मोतीराम (निवासी- उमरूकला, तहसील खटीमा)
5 स्व. श्री गोप चन्द पुत्र श्री प्रताप चन्द (निवासी- रतनपुर, तहसील खटीमा)
6 स्व. श्री परमजीत सिंह पुत्र श्री हरिबन्द सिंह (निवासी- राजीव नगर, खटीमा)
7 स्व. श्री रामपाल पुत्र श्री बाबूराम (निवासी- इंडिया थाना नवाबगंज, जिला-बरेली)

इन शहीदों में हर धर्म और समुदाय के लोग शामिल थे, जो यह साबित करता है कि उत्तराखंड राज्य का सपना किसी एक का नहीं, बल्कि पूरे पहाड़ का साझा सपना था।


गोलीकांड का प्रभाव और परिणाम

खटीमा गोलीकांड की खबर ने पूरे पहाड़ में आक्रोश की लहर पैदा कर दी। यह राज्य आंदोलन का एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ।

आंदोलन का तीव्र होना : इस घटना के बाद आंदोलन और भी उग्र हो गया। खटीमा गोलीकांड के ठीक अगले दिन, 2 सितंबर 1994 को मसूरी में भी इसी तरह की घटना को अंजाम दिया गया, जिसे मसूरी गोलीकांड के नाम से जाना जाता है।

जन-जन का आंदोलन : इन घटनाओं ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन को कुछ नेताओं या संगठनों का आंदोलन न रखकर, इसे जन-जन का आंदोलन बना दिया।

राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित : इन गोलीकांडों ने पूरे देश का ध्यान पहाड़ के लोगों की पीड़ा और उनकी मांग की ओर खींचा।
इन बलिदानों और लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप, अंततः 9 नवंबर 2000 को भारत के 27वें राज्य के रूप में उत्तराखंड का जन्म हुआ।


खटीमा गोलीकांड उत्तराखंड के लोगों के संघर्ष, बलिदान और दृढ़ संकल्प की कहानी कहता है। हर साल 1 सितंबर को इन अमर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है और उनके बलिदान को याद किया जाता है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि उत्तराखंड राज्य कितनी मुश्किलों और कुर्बानियों के बाद हासिल हुआ है, और इसके विकास और समृद्धि के लिए काम करना ही उन शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।



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