🌿 "हरेला पर्व: उत्तराखंड की लोक परंपरा और प्रकृति से जुड़ा हरियाली उत्सव"||harela-festival-uttarakhand-lok-parv



 उत्तराखंड, जिसे 'देवभूमि' के नाम से जाना जाता है, न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि लोक संस्कृति और प्रकृति के साथ सामंजस्य का एक जीवंत उदाहरण भी है। यहाँ का हर त्योहार और हर ऋतु प्रकृति से गहराई से जुड़ी हुई है। इन्हीं पर्वों में से एक अनूठा उत्सव है— हरेला। यह पर्व हरियाली, कृषि, पारिवारिक संबंधों और भविष्य की समृद्धि का प्रतीक है।



🌿 हरेला का अर्थ और महत्व


‘हरेला’ का शाब्दिक अर्थ है "हरियाली का दिन"। यह पर्व मुख्य रूप से उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में मनाया जाता है। वैसे तो हरेला वर्ष में तीन बार (चैत्र, श्रावण और आश्विन में) आता है, लेकिन श्रावण मास में पड़ने वाला हरेला सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। श्रावण संक्रांति के दिन मनाया जाने वाला यह हरेला नई फसल और वर्षा ऋतु के आगमन का सूचक है। यह पर्व धरती माता के प्रति कृतज्ञता और प्रकृति के देवों को धन्यवाद देने का अवसर होता है।


🌱 हरेला बोने की विधि: समय और अनाज


हरेला बोने की प्रक्रिया इस पर्व का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र हिस्सा है। समय:
हरेला श्रावण संक्रांति (त्योहार के मुख्य दिन) से ठीक 9 दिन पहले बोया जाता है। इसे दसवें दिन काटा जाता है। यह समय-गणना लगभग सभी जगह एक समान है।

  

✅   कहाँ बोया जाता है:

 * बाँस की छोटी टोकरियों या रिंगाल से बने पात्रों में।
 * घरों के मंदिर के पास किसी शुद्ध स्थान पर।
 * इसमें साफ मिट्टी की परत बिछाकर बीज बोए जाते हैं।

    (देखभाल):

 * हरेला को सीधी धूप से बचाकर मंदिर या किसी ठंडी, छाँव वाली जगह पर रखा जाता है।
 * माना जाता है कि सीधी धूप से बीज खराब हो सकते हैं और अंकुरण ठीक से नहीं होता।


🌾 कौन-कौन से बीज बोए जाते हैं?
हरेला में पाँच या सात प्रकार के अनाज (पंचधान्य या सप्तधान्य) बोने की परंपरा है।

    | अनाज | प्रतीक |

| 🌾 गेहूँ | समृद्धि और स्थिरता |
| 🌽 मक्का | विकास और उन्नति |
| 🌿 जौ | उर्वरता और दैवीय कृपा |
| 🫘 उड़द | पोषण और भूमि की शक्ति |
| 🟤 भट्ट (काला सोयाबीन) | पारंपरिक अन्न और स्वास्थ्य |
| 🟢 सरसों | ऊर्जा और सकारात्मकता |
| 🔴 गहत (दाल) | आरोग्य और सौभाग्य |


इन बीजों पर रोज़ सुबह जल छिड़का जाता है। 9-10 दिनों में ये हरे-पीले अंकुर के रूप में उग आते हैं, जिन्हें ही "हरेला" कहा जाता है।


🧓 पारंपरिक विधि और लोक आस्था

श्रावण संक्रांति के दिन हरेला काटा जाता है। घर के सबसे बुजुर्ग सदस्य या मुखिया इसे देवताओं को अर्पित करने के बाद परिवार के सभी सदस्यों को लगाते हैं।
वे हरेले की कोमल पत्तियों को सिर पर और कानों के पीछे रखते हुए यह आशीर्वाद देते हैं।


> "जी रया, जागि रया, तिष्टिया, पनपिया,
> दूब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
> हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पाणी छन तक,
> यो दिन और यो मास भेटनै रया।"


अर्थात: "तुम जीवित रहो, जागरूक रहो, समृद्ध बनो। दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ें हरी रहें, बेल की तरह तुम फैलो। जब तक हिमालय में बर्फ़ है और गंगा में पानी है, तब तक यह दिन और यह महीना तुम्हें मिलता रहे।"

इसके बाद हरेले को घर के दरवाजों की चौखट पर, तुलसी के पौधे पर और अपनी तिजोरी या भंडार घर में भी रखा जाता है। यह सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।


🎶 हरेला के लोक गीत और रीति-रिवाज

हरेला के अवसर पर प्रकृति और शिव-पार्वती से जुड़े लोक गीत गाए जाते हैं। इन गीतों में अच्छी फसल, वर्षा और परिवार की खुशहाली की कामना की जाती है। यह पर्व सामाजिक मेलजोल का भी एक बड़ा अवसर होता है।

उत्तराखंड, जिसे 'देवभूमि' के नाम से जाना जाता है, न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि लोक संस्कृति और प्रकृति के साथ सामंजस्य का एक जीवंत उदाहरण भी है। यहाँ का हर त्योहार और हर ऋतु प्रकृति से गहराई से जुड़ी हुई है। इन्हीं पर्वों में से एक अनूठा उत्सव है— हरेला। यह पर्व हरियाली, कृषि, पारिवारिक संबंधों और भविष्य की समृद्धि का प्रतीक है।

 

🌳 पर्यावरण और आधुनिक हरेला


आज के समय में हरेला केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक भी बन गया है।

 * इस दिन उत्तराखंड सरकार और कई गैर-सरकारी संगठन "हरेला पर्व" के नाम से वृक्षारोपण अभियान चलाते हैं।

 * स्कूलों, कॉलेजों और गाँवों में लोगों को एक पौधा लगाने और उसकी देखभाल करने के लिए प्रेरित किया जाता है।

 * यह पर्व प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते को मजबूत करने का एक आधुनिक माध्यम बन गया है।



हरेला उत्तराखंड की लोक परंपरा, प्रकृति के प्रति प्रेम और पारिवारिक सौहार्द का एक अद्भुत संगम है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि हरियाली केवल खेतों में नहीं, बल्कि हमारी सोच और जीवनशैली में भी होनी चाहिए।


👉 आइए, इस हरेला पर हम भी एक पौधा लगाएं और इस पर्व को केवल परंपरा नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी के रूप में मनाएं ।






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