नंदा अष्टमी का त्योहार उत्तराखंड में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है यह उत्सव हिमालय की पुत्री नंदा देवी की पूजा अर्चना के लिए प्रत्येक वर्ष भाद्र शुक्ल पक्ष की पंचमी से उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल दोनों मंडलों में धूमधाम से मनाया जाता है।
नंदा देवी का इतिहास
नंदा देवी को ( मां पार्वती ) का प्रतीक माना जाता है । नंदा देवी की पूजा उत्तराखंड में शताब्दियों से प्रचलित है। नंदा देवी की सात बहनें मानी जाती हैं जो क्रमशः लाता, दयोराड़ा, पैनीगढी, चांदपुर, कत्यूर, अल्मोड़ा तथा नैनीताल में स्थित है।
नंदा देवी की मूर्ति को अल्मोड़ा में लाने के दो प्रमुख प्रसंग हैं:
पहला प्रसंग राजा बाज बहादुर चंद का है। राजा बाज बहादुर चंद चंद वंश के शासक थे, जिन्होंने 1673 में गढ़वाल पर आक्रमण कर जूनागढ़ किले पर विजय प्राप्त की। इस विजय के बाद, उन्होंने जूनागढ़ के मंदिर से नंदा देवी की मूर्ति को लूट लिया और उसे अपने साथ अल्मोड़ा ले आए। उन्होंने इस मूर्ति को अपने महल में स्थापित किया और अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा शुरू की।
दूसरा प्रसंग राजा जगत चंद का है। राजा जगत चंद बाज बहादुर चंद के पुत्र थे। उन्होंने 1679 में बधानकोट किले पर विजय प्राप्त की। इस विजय के बाद, उन्होंने खजाने से अशर्फियों को गलाकर मां नंदा की प्रतिमा तैयार कराई और उसे भी मल्ला महल स्थित नंदा देवी मंदिर में स्थापित कर दिया।
मल्ला महल (वर्तमान कलक्ट्रेट परिसर) में स्थापित नंदा देवी की मूर्तियों को 1815 में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने उद्योत चंद्रेश्वर मंदिर में रखवा दिया। इसकी वजह यह है कि ट्रेल को एक दिन अचानक आंखों की रोशनी चली गई थी। लोगों की सलाह पर उन्होंने अल्मोड़ा में नंदा देवी का मंदिर बनवाकर वहां नंदा देवी की मूर्ति स्थापित करवाई, तो उनकी आंखों की रोशनी लौट आई।
नंदा देवी को चंद वंश के शासकों द्वारा अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा जाता था। नंदा देवी की मूर्ति को अल्मोड़ा लाने के पीछे राजनैतिक कारण भी थे। जूनागढ़ किले पर विजय प्राप्त करने के बाद, बाज बहादुर चंद ने नंदा देवी की मूर्ति को लूटकर अपने राज्य में स्थापित कर लिया। इससे उन्हें अपने राज्य की शक्ति और वैभव को बढ़ाने में मदद मिली। उत्तराखंड की अनेक स्थानों में ऊंचे ऊंचे पर्वतों की चोटी में छोटे-छोटे मंदिर बनाकर देवी की पूजा की जाती है। राज राजेश्वरी का प्राचीन मंदिर भी नंदा देवी से ही संबंधित है । ऐसा माना जाता है कि जब नंदा देवी जब पूजा चाहती है ,तो चार सिंग वाला मेंढ़ा उत्पन्न हो जाता है । यह चार सिंग वाला मेंढ़ा हर 12 वर्ष में पश्चिमी उत्तराखंड में उत्पन्न होता है । इस पूजा को उत्तराखंड में नंदा देवी की राज जात्रा के नाम से जाना जाता है।
नंदा देवी की पूजा कैसे की जाती है ?
नंदा देवी की पूजा में देवी का अवतार एक व्यक्ति में होता है, जिसे डंगरिया कहा जाता है। डंगरिया के लिए अष्टमी के दिन व्रत रखना आवश्यक होता है। देवी की पूजा के लिए केले के वृक्षों से मूर्तियां बनाई जाती हैं। इन वृक्षों का चयन डंगरिया ही करता है। वह केले के वृक्षों की ओर चावल और फूल फेंकता है और जो वृक्ष हिलता है, उसकी पूजा कर उसे काटकर देवी के मंदिर में लाता है। केले के वृक्षों से मूर्तियां बनाने के पीछे एक लोककथा है। कहा जाता है कि जब महिषासुर भैंस का रूप लेकर नंदा को मारने के लिए आया था, तो देवी ने उसे वन में घूम-घूमकर थका दिया। तब देवी ने केले के वृक्ष में शरण ली। इसलिए केले के वृक्ष से ही देवी की मूर्तियां बनाई जाती हैं।
देवी की मूर्तियों के निर्माण का कार्यक्रम सप्तमी के दिन शुरू होता है और अष्टमी के दिन समाप्त हो जाता है। अष्टमी के दिन मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। पहले इस दिन एक बलि देने की प्रथा थी, लेकिन अब इसे बंद कर दिया गया है। नवमी के दिन नौ कन्याओं को भोग लगाया जाता है और दशमी के दिन देवी के डोले में विदा कर एक जल स्रोत पर विसर्जित कर दिया जाता है। विसर्जन बुध, शुक्र या रविवार के दिन ही किया जाता है। इस प्रकार, देवी के डोले के विसर्जन के साथ ही नंदा देवी की पूजा समाप्त होती है।
नंदा देवी की पूजा उत्तराखंड की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा है। यह पूजा नंदा देवी को समर्पित है, जो उत्तराखंड की प्रमुख देवी हैं। नंदा देवी को शक्ति और समृद्धि की देवी माना जाता है।
नंदा देवी के मेले का आयोजन कहां-कहां होता है ?
उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में नंदा देवी के मेले का आयोजन होता है जैसे कुमाऊं के अल्मोड़ा ,रानीखेत, नैनीताल, मिलम, कोटभ्रामरी,बागेश्वर तथा जबकि गढ़वाल के नौटी, देवराड़ा ,कुरूड़,गैर ,सिमली, बीरौ-देवल, में नंदा देवी के मिले लगते हैं ।
उत्तराखंड के लोगों में मां नंदा के प्रति अटूट आस्था है। हर बरस जगह-जगह लगने वाले नंदा देवी मेले में उमड़ने वाला सैलाब इसी आस्था को प्रदर्शित करता है। अल्मोड़ा का नंदादेवी मेला भी इसी आस्था का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है।
अल्मोड़ा का नंदादेवी मेला उत्तराखंड के सबसे प्रसिद्ध मेलों में से एक है। यह मेला हर साल सितंबर महीने में आयोजित किया जाता है। इस मेले में उत्तराखंड के साथ-साथ अन्य राज्यों से भी लाखों श्रद्धालु आते हैं।
अल्मोड़ा का नंदादेवी मेला एक सांस्कृतिक आयोजन भी है। इस मेले में लोकगीत, लोकनृत्य और लोककला का प्रदर्शन किया जाता है। यह मेला उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करता है।
अल्मोड़ा के नंदादेवी मेले का अपना खासा महत्व है। यह मेला नंदा देवी की आराधना और उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण का एक महत्वपूर्ण अवसर है।
#नंदाष्टमी #नंदादेवी #नंदामाता #आठवीं #नंदाष्टमी202

