तीलु रौतेली|उत्तराखण्ड की महान वीरांगना तीलू रौतेली कौन थी । जानिए..

 भारतीय संस्कृति में विरागिनियों का महत्व बहुत ऊँचा होता है। वे वह आत्माएं होती हैं, जो समाज में आगे बढ़ने वाले समय में भी अपने संघर्षों और समर्पण के साथ अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुटी रहती हैं। आपने रानी लक्ष्मीबाई और जीया रानी के बारे मे पड़ा होगा पर देवभूमि की महान विरागना तीलू रौतेली भी भारतीय इतिहास में एक ऐसी प्रेरक प्रतीक हैं, जिनके जीवन की कहानी सभी को प्रेरित करती है। इस लेख में, हम उनके जीवन के महत्वपूर्ण पहलूओं को जानेंगे और उनके वीरता और समर्पण के संदेशों से परिचित होंगे।



तीलू रौतेली, जिनका असली नाम 'तिलोत्मा देवी' था, 8 अगस्त 1661 में उत्तराखंड के एक छोटे से गांव चौंदकोट (पौड़ी) में पैदा हुईं।तीलू रौतेली के पिता का नाम भूप सिंह रावत और माता का नाम मौणा देवी था। भूप सिंह गढ़वाल नरेश फतहशाह के दरबार में सम्मानित थोकदार थे। तीलू के दो भाई थे जिनका नाम भगतु और पथवा था। तीलू रौतेली बचपन से ही काफी तेज़ तर्रार थी।जिस उम्र में बच्चे खेलना कूदना जानते हैं,उस उम्र में तीलू घुड़सवारी और तलवारबाज़ी में महारत हासिल कर ली थी।


15 वर्ष की आयु में तीलू रौतेली की सगाई इडा गाँव के भुप्पा सिंह के पुत्र भवानी सिंह नेगी के साथ हुई। इन्ही दिनों गढ़वाल में कन्त्यूरों के लगातार हमले हो रहे थे, हमले होने का कारण यह था कि चंद वंश के शासक ने कत्यूरी शासक को गढ़वाल खदेड़ दिया था क्योंकि युद्ध में कत्यूरी द्वारा गढ़वाल शासक की मदद किये जाने पर जब कत्यूरी गढ़वाल सीमा पर गये तो उनका संघर्ष गढ़वाल के सीमावर्ती थोकदार भूपसिंह व उनके पुत्रों भगतू और पथवा से हुआ था । इस युद्ध में तीलू रौतेली के पिता, दोनों भाई और मंगेतर की हत्या हो गई।

कुछ ही दिनों बाद तीलू रौतेली के गांव कांडा में मिला का आयोजन हुआ, जिसमें तीलू सारी बातें भूल कर मेला जाने की जिद करने लगी, तू तीलू की मां ने रोते हुए देखा ताना मारा "तीलू तू कैसी है रे ! तुझे अपने पिता,भाईयों की याद नहीं आती रे। तेरे पिता,भाई और मंगेतर का प्रतिरोध कौन लेगा रे।  तो यह बाते तीलू के मन में चुभ गई और उसने कौथिक जाने का ध्यान छोड़ दिया और प्रतिरोध की धुन पकड़ ली ।


तीलू रौतेली ने अपनी सहेली बेलू और देवली के साथ मिलकर एक नई सेना बनाई, जिसमें पुरानी बिखरी हुई सेना को भी एकत्रित किया। तीलू रौतेली अपनी घोड़ी बिंदुली तथा सेना और अपनी सहेलियों के साथ युद्ध भूमि के लिए प्रस्थान किया।


पहला युद्ध : खैरागढ़ ( वर्तमान में कालागढ़ के समीप)              इस युद्ध में यहां से कत्यूरो को पराजित किया।

दूसरा युद्ध : उमटागढी पर किया।

तीसरा युद्ध : सल्ट महादेव, इसी प्रकार से कालिकां खाल, और सराईखेत में युद्धो में विजय प्राप्त की। अपने पिता , भाइयों तथा मंगेतर के बलिदान का बदला लिया। सराईखेत में बिंदुली ने भी घायल होकर तीलू रौतेली का साथ छोड़ दिया।


शत्रु को पराजय का स्वाद चखाने के बाद तीलू रौतेली लौट रही थी तो जल स्रोत को देखकर कुछ विश्राम करने की इच्छा हुई। कांडा गाँव के ठीक नीचे  नयार नदी में पानी पीने के लिए उसने अपनी तलवार नीचे रख दी, लेकिन जैसे ही वह पानी पीने के लिए झुकी, उधर छुपे हुए पराजय से अपमानित रामू रजवार ने निहत्थी तीलू पर पीछे से छुपकर वार कर दिया और उसकी जान ले ली।कहा जाता है कि तीलू ने मरने से पहले उस शत्रु सैनिक को अपनी कटार से यमलोक भेजा था। महज 22 साल की उम्र में तीलू रौतेली ने लोगों के लिए प्रेरणा बनकर वीरगति को प्राप्त हुई ।


समर्पण और साहस:

तीलू रौतेली ने विरागिता के पथ पर चलते हुए वीरता और समर्पण के साथ सभी चुनौतियों का सामना किया। उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ा और उन्हें पूरा करने के लिए समर्पित होना पड़ा। लोगों को उनकी वीरता और समर्पण की कहानी प्रेरित करती है और विरागिनियों के महत्व को समझाती है।


सम्बन्धित संदेश:

तीलू रौतेली की जीवन कहानी हमें समर्पण और विरागिता का संघर्ष करने का पाठ सिखाती है। सामाजिक अधिकारों की रक्षा करने और अपने लक्ष्यों के प्रति समर्पित रहने के लिए हमें वीरता की आवश्यकता होती है। हमें महिलाओं को समाज में सम्मान और उच्च स्थान प्राप्त करने में सक्षम बनाना चाहिए।


अंत:

तीलू रौतेली की कहानी से प्रेरित होकर हमें विरागिनियों का महत्व समझना और उनका सम्मान करना चाहिए। उनकी वीरता और समर्पण की प्रेरणा हमें अपने जीवन में सफलता हासिल करने के लिए प्रेरित करती है। उन्हें स्मरण करना चाहिए, उनका सम्मान करना चाहिए और उनकी कहानी को दूसरों को बताकर उन्हें सशक्त बनाना चाहिए।



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tazza Avalokan

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