उत्तराखंड की पारंपरिक होली चीर होली|| uttarakhand traditional holi cheer holi

 उत्तराखंड की चीर होली: परंपरा, महत्व और विशेषताएँ


उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में होली का उत्सव बेहद खास होता है। यहाँ होली सिर्फ रंगों तक सीमित नहीं होती, बल्कि इसमें पारंपरिक संगीत, नृत्य, धार्मिक अनुष्ठान और सामाजिक मेलजोल का अनूठा संगम देखने को मिलता है। इन्हीं खास परंपराओं में से एक है चीर होली, जो पूरे उत्तराखंड, खासकर कुमाऊं क्षेत्र के गांवों और कस्बों में विशेष रूप से मनाई जाती है। इस पर्व की शुरुआत बसंत पंचमी से होती है और यह होलिका दहन तक चलता है।





चीर होली क्या है?


चीर होली उत्तराखंड की एक पारंपरिक होली है, जिसमें चीर (एक विशेष ध्वज या वस्त्र का टुकड़ा) की पूजा की जाती है। यह पर्व सामाजिक एकता, पर्यावरण संरक्षण और भक्ति भावना को प्रकट करता है।


चीर होली का इतिहास और महत्व


चीर होली का इतिहास पौराणिक कथाओं और स्थानीय परंपराओं से जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि भगवान कृष्ण के समय से ही कुमाऊं में इस तरह की होली मनाई जाती रही है। यह सिर्फ रंगों का उत्सव नहीं, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक आस्था का प्रतीक भी है।
इस होली के दौरान लोग भगवान विष्णु और राधा-कृष्ण की भक्ति में लीन होकर गीत गाते हैं और पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ होली का आनंद उठाते हैं।


चीर होली की शुरुआत और प्रक्रिया


1. चीर बांधने की परंपरा (बसंत पंचमी से शुरू) या शुभ मुहुर्त के दिन गांव के लोग जंगल से एक लंबा और मजबूत पेड़ काटकर लाते हैं। इस लकड़ी को एक खुले स्थान (अखाड़े या मंदिर प्रांगण) में गाड़ा जाता है। फिर इस लकड़ी पर रंग-बिरंगे कपड़े (चीर) बांधे जाते हैं। इसे ही "चीर गाड़ना" कहा जाता है।
यह चीर पूरे होली पर्व के दौरान गाँव की सामूहिक आस्था और उमंग का प्रतीक बनती है।

2. होली गायन और बैठकी होली चीर बांधने के बाद होली के गीत गाए जाते हैं, जिसे बैठकी होली कहते हैं। यह होली मुख्य रूप से मंदिरों, घरों और चौपालों में संगीत के साथ बैठकर गाई जाती है। इसमें विशेष प्रकार के शास्त्रीय रागों का प्रयोग किया जाता है, जिसे कुमाऊंनी होली कहा जाता है।

3. रंगों और हास्य व्यंग्य की होलीहोली के दिनों में विभिन्न गांवों और कस्बों में महिलाओं और पुरुषों की टोलियाँ बनती हैं, जो हास्य और व्यंग्य के साथ पारंपरिक लोकगीत गाकर एक-दूसरे का मनोरंजन करते हैं। इसे "खड़ी होली" कहा जाता है, जिसमें लोग नाचते-गाते हुए पूरे गाँव में घूमते हैं।

4. चीर दहन (फाल्गुन पूर्णिमा पर समापन) होलिका दहन की रात को इस चीर को निकालकर होलिका में जलाया जाता है।
इस दौरान लोग एक-दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं और बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाते हैं।



चीर होली की विशेषताएँ

1. धार्मिक आस्था – यह होली सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक भी है।


2. सामाजिक एकता – यह पूरे गाँव को एकजुट करती है और लोगों को आपसी प्रेम और भाईचारे का संदेश देती है।


3. पर्यावरण संरक्षण – यह पर्व प्रकृति से जुड़ा हुआ है, जिसमें लकड़ी का चुनाव सोच-समझकर किया जाता है ताकि जंगलों को नुकसान न पहुँचे।


4. सांस्कृतिक धरोहर – चीर होली के पारंपरिक गीत, संगीत और नृत्य उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं।




उत्तराखंड की चीर होली सिर्फ रंगों का नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता का प्रतीक है। यह पर्व सदियों से अपने धार्मिक महत्व, सांस्कृतिक धरोहर और सामूहिक उत्साह के कारण खास बना हुआ है। यदि आप उत्तराखंड की लोकसंस्कृति  को करीब से देखना चाहते हैं, तो चीर होली का अनुभव आपके लिए यादगार साबित हो सकता है।


tazza Avalokan

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने